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ये द्र॒प्सा इ॑व॒ रोद॑सी॒ धम॒न्त्यनु॑ वृ॒ष्टिभि॑: । उत्सं॑ दु॒हन्तो॒ अक्षि॑तम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ye drapsā iva rodasī dhamanty anu vṛṣṭibhiḥ | utsaṁ duhanto akṣitam ||

पद पाठ

ये । द्र॒प्साःऽइ॑व । रोद॑सी॒ इति॑ । धम॑न्ति । अनु॑ । वृ॒ष्टिऽभिः॑ । उत्स॑म् । दु॒हन्तः॑ । अक्षि॑तम् ॥ ८.७.१६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:7» मन्त्र:16 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:21» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:16


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शिव शंकर शर्मा

प्राणों की स्तुति कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (द्रप्साः+इव) आग्नेय कणों के समान दीप्तिमान् और गतिमान् (ये) जो बाह्य मरुद्गण (अक्षितम्) अक्षीण (उत्सम्) मेघ को (दुहन्तः) उत्पन्न करते हुए (वृष्टिभिः) वृष्टि द्वारा (रोदसी) पृथिवी और अन्तरिक्ष दोनों को (अनु+धमन्ति) नादित कर देते हैं अर्थात् पृथिवी और आकाश में वायु के चलने और वृष्टि के होने से महान् नाद उत्पन्न होता है ॥१६॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यों ! जैसे वायु से जगत् को लाभ पहुँचता है, तद्वत् आप भी मनुष्य में लाभ पहुँचाया कीजिये, अध्यात्म में भी इसको लगाना चाहिये ॥१६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो योद्धा लोग (अक्षितम्, उत्सम्) अक्षीण उत्साह को (दुहन्तः) दुहते हुए (द्रप्सा इव) जलबिन्दुओं के समूह समान एकमत होकर (वृष्टिभिः) शस्त्रों की वर्षा से (रोदसी) द्युलोक और पृथिवी को (अनुधमन्ति) शब्दायमान कर देते हैं ॥१६॥
भावार्थभाषाः - जिन योद्धाओं के अस्त्र-शस्त्ररूप बाणवृष्टि से नभोमण्डल पूर्ण हो जाता है, उन्हीं से अपनी रक्षा की भिक्षा माँगनी चाहिये ॥१६॥
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शिव शंकर शर्मा

प्राणान् स्तुवन्ति।

पदार्थान्वयभाषाः - ये मरुतः। द्रप्साः+इव=आग्नेयकणा इव। वृष्टिभिर्वर्षणैः। रोदसी=द्यावापृथिव्यौ। अनुधमन्ति=साकल्येन नादयन्ति। ते विज्ञातव्या इत्यर्थः। किं कुर्वन्तः। अक्षितम्=अक्षीणम्। उत्सम्=मेघमानन्दञ्च। दुहन्तः=उत्पादयन्तः ॥१६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) ये योधाः (अक्षितम्, उत्सम्) अक्षीणमुत्साहम् (दुहन्तः) उत्पादयन्तः (द्रप्सा इव) उदबिन्दव इव संहताः सन्तः (वृष्टिभिः) शस्त्रवर्षैः (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अनुधमन्ति) शब्दायमाने कुर्वन्ति ॥१६॥